वैश्विक वित्तीय केंद्र स्टेबलकॉइन पर बना रहे हैं नियामकीय स्पष्टता की राह
नई दिल्ली, 01 सितंबर, 2025: डिजिटल परिसंपत्तियों के क्षेत्र में पिछले माह एक अहम बदलाव देखने को मिला। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जीनियस अधिनियम (GENIUS Act) पर हस्ताक्षर कर...

नई दिल्ली, 01 सितंबर, 2025:
डिजिटल परिसंपत्तियों के क्षेत्र में पिछले माह एक अहम बदलाव देखने को मिला। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जीनियस अधिनियम (GENIUS Act) पर हस्ताक्षर कर इसे क़ानून बना दिया। यह अमेरिका का पहला ऐसा विधेयक है जो सीधे स्टेबलकॉइन को नियंत्रित करता है और ट्रंप प्रशासन की नवाचार समर्थक नीति को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इसी क्रम में, एशिया के प्रमुख वित्तीय केंद्र हांगकांग ने 1 अगस्त से स्टेबलकॉइन अध्यादेश लागू किया, जो स्टेबलकॉइन जारीकर्ताओं के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
इन विधायी पहलों का महत्व इसलिए है क्योंकि ये तकनीकी नवाचार को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ नियामकीय स्पष्टता भी लाती हैं। दोनों ढाँचों में एक समान प्रावधान है—स्टेबलकॉइन को पूरी तरह तरल और उच्च गुणवत्ता वाली परिसंपत्तियों से समर्थित होना चाहिए, उपभोक्ताओं को निश्चित वापसी की गारंटी दी जाए और जारीकर्ताओं को अलग से आरक्षित निधि बनाए रखनी होगी। इसके अतिरिक्त, लाइसेंस प्रणाली और सख़्त अनुपालन तंत्र भी लागू किया गया है। इन नियमों से उपभोक्ता सुरक्षा, संचालन में पारदर्शिता और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है।
फिर भी, दोनों व्यवस्थाओं में स्टेबलकॉइन की भूमिका को लेकर कुछ अंतर मौजूद हैं। हांगकांग का अध्यादेश सिद्धांत-आधारित है—यह केवल फिएट मुद्रा से जुड़े टोकन को मान्यता देता है और आरक्षित निधि की संरचना तथा प्रकटीकरण की अवधि जैसी बातों को नियामक के विवेक पर छोड़ देता है। इससे नियामकों को बदलते बाज़ार के अनुरूप लचीलापन मिलता है। इसके विपरीत, अमेरिका का जीनियस अधिनियम नियम-आधारित है—यह भले ही एल्गोरिदमिक स्टेबलकॉइन पर प्रत्यक्ष प्रतिबंध नहीं लगाता, लेकिन स्टेबलकॉइन के निर्गम को बैंकिंग प्रणाली से सख़्ती से जोड़ता है। इसमें आरक्षित परिसंपत्तियों के लिए कठोर मानक, नियमित प्रकटीकरण और लेखा-परीक्षा की सख़्त शर्तें शामिल हैं। यह ढाँचा प्रणालीगत स्थिरता, कानूनी सुरक्षा और अधिकतम निवेशक संरक्षण को प्राथमिकता देता है, भले ही इसके कारण नियामकीय लचीलापन कुछ हद तक सीमित हो जाए। संक्षेप में, दोनों मॉडल अस्थिरता, उपभोक्ता/निवेशक जोखिम और वित्तीय स्थिरता जैसी समान चुनौतियों का अलग-अलग तरीकों से समाधान प्रस्तुत करते हैं।
अमेरिका और हांगकांग के अलावा, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात भी स्टेबलकॉइन के लिए अपने-अपने ढाँचे लागू कर चुके हैं। यूरोपीय संघ ने संपत्ति-समर्थित और फिएट-समर्थित दोनों तरह के स्टेबलकॉइन की अनुमति दी है और एल्गोरिदमिक मॉडल पर स्पष्ट प्रतिबंध नहीं लगाया। इसके विपरीत, संयुक्त अरब अमीरात ने एल्गोरिदमिक स्टेबलकॉइन पर रोक लगा दी है और हांगकांग के अधिक कठोर ढाँचे के करीब खड़ा है। वहीं सिंगापुर केवल सिंगापुर डॉलर या जी-10 देशों की मुद्राओं से जुड़े फिएट-समर्थित स्टेबलकॉइन को ही मान्यता देता है। चीन और दक्षिण कोरिया भी अपने नियामकीय ढाँचे तैयार करने की प्रक्रिया में हैं।
इन वैश्विक प्रयासों से यह संभावना बढ़ रही है कि अंतरराष्ट्रीय निकाय—जैसे अंतरराष्ट्रीय निपटान बैंक (BIS), वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB) और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF)—सीमा-पार सामंजस्यपूर्ण नियम बनाने की दिशा में आगे बढ़ें और ‘नियामकीय पैंतरेबाज़ी’ की समस्या को कम कर सकें।
इन तमाम घटनाक्रमों के बीच भारत अब भी ‘वेट एंड वॉच’ की नीति अपना रहा है। परंपरागत रूप से भारत बड़े बदलावों पर निर्णय लेने से पहले वैश्विक परिदृश्य को स्पष्ट होने देता है। किंतु यह भी ध्यान रखना होगा कि अत्यधिक सतर्कता हमें पीछे न छोड़ दे। जब दुनिया के प्रमुख वित्तीय केंद्र आगे बढ़कर अपनी भूमिका दर्ज करा रहे हैं, तब भारत के लिए भी समय रहते ठोस नीति बनाना अनिवार्य है।
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